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भारत में भ्रष्टाचार पर नियंत्रण एवं नागरिक हितों के संरक्षण के
लिए एक लंबे समय से केंद्रीय कानून के रूप में लोकपाल की व्यवस्था किए जाने की मांग की जा रही थी, जो कि अब पूरी हो चुकी है । बहुप्रतीक्षित ‘लोकपाल और लोकायुक्त विधेयक, 2013 ‘ 17 दिसंबर, 2013 को राज्य सभा एवं 18 दिसंबर, 2013 को लोकसभा में ध्वनिमत से पारित होने के बाद अब अधिनियम के रूप में अस्तित्व में आ चुका है। इसे 1 जनवरी, 2014 को राष्ट्रपति की संस्तुति मिली और अधिनियमित होने के उपरांत यह कानून के रूप में देश में लागू हुआ। अंततः मार्च, 2019 में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, मुख्य न्यायाधीश रंजन गोगोई, तत्कालीन लोकसभा अध्यक्ष सुमित्रा महाजन तथा पूर्व अटार्नी जनरल मुकुल रोहतगी की चयन समिति ने सर्वोच्च न्यायालय के पूर्व मुख्य न्यायाधीश न्यायमूर्ति पिनाकी घोष को देश का पहला लोकपाल नियुक्त किया । यह कानून पाने के लिए कब-कब क्या-क्या प्रयास हुए तथा इसका स्वरूप क्या है, इन बिंदुओं पर चर्चा करने से पूर्व यह जान लेना समीचीन रहेगा कि लोकपाल कहते किसे हैं।
‘आधुनिक शासन की बढ़ती हुई शक्तियों से नागरिकों के हितों एवं अधिकारों की रक्षा करने के लिए जिन अनेक युक्तियों का आविष्कार किया गया, उनमें से लोकपाल (Ombudsman) भी एक है।”
वस्तुतः लोकपाल (Ombudsman) वह सरकारी व्यक्ति होता है, जिसे किसी सरकारी व्यक्ति के खिलाफ शिकायतों की जांच- पड़ताल करने का अधिकार प्राप्त होता है। आधुनिक शासन की बढ़ती हुई शक्तियों से नागरिकों के हितों एवं अधिकारों की रक्षा करने के लिए जिन अनेक युक्तियों का आविष्कार किया गया, उनमें से लोकपाल (Ombudsman) भी एक है। ओम्बुड्समैन की अवधारणा का आविर्भाव सर्वप्रथम 1809 में स्वीडेन में हुआ था। ओम्बुड्समैन का कार्य सरकारी विभागों के विरुद्ध नागरिकों की शिकायतों की छानबीन करना है। यदि उसे पता चलता है कि नागरिक की शिकायत सही है, तो वह उसके प्रति हुए अन्याय के निवारण का प्रयत्न करता है। इसकी भूमिका एक लोक अदालतकर्ता जैसी होती है। पिछले कुछ दशकों में लोकपाल प्रणाली का तीव्र विकास हुआ है तथा इसे विश्व के अनेक देशों द्वारा अपनाया जा चुका है।
यह कहना बेजा न होगा कि भारत में लोकपाल प्रणाली को अपनाने में बहुत देर की गई, जबकि इसकी मांग लंबे समय से की जा रही थी। भारत में प्रशासन के विरुद्ध नागरिकों की शिकायतों की देखभाल करने के लिए एक
लोकपाल प्रकार की संस्था के गठन का विचार पहली बार वर्ष 1963 में कानून मंत्रालय की अनुदान सम्बन्धी मांगों पर चर्चा के दौरान सामने आया। परंतु वर्ष 1966 में पहली बार केंद्र में एक लोकपाल एवं राज्यों में लोकायुक्त को नियुक्त किए जाने का प्रस्ताव प्रस्तुत किया गया। चौथी लोकसभा में पहली बार वर्ष 1968 में एक लोकपाल विधेयक प्रस्तुत किया गया। हालांकि उसके बाद मात्र 1985 को छोड़कर यह बिल प्रत्येक लोकसभा में निरंतर गिरता रहा तथा सरकार द्वारा इसे वापस ले लिया गया। इसके अनुक्रमिक संस्करणों को क्रमशः 1971, 1977, 1985, 1989, 1996, 1998 तथा 2001 में प्रस्तुत किया जाता रहा परंतु यह कभी भी संसद से पारित नहीं हो सका। 4 अगस्त, 2001 को लोकसभा में प्रस्तुत लोकपाल विधेयक इस विधेयक का संसद के समक्ष प्रस्तुत किया जाने वाला 9वां संस्करण
था। ‘लोकपाल एवं लोकायुक्त अधिनियम, 2013 सुशासन को प्रोत्साहित करने, भ्रष्टाचार से लड़ने तथा नागरिकों के वैधानिक अधिकारों को संरक्षण प्रदान करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाएगा। “
‘लोकपाल एवं लोकायुक्त अधिनियम, 2013 सुशासन को प्रोत्साहित करने, भ्रष्टाचार से लड़ने तथा नागरिकों के वैधानिक अधिकारों को संरक्षण प्रदान करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाएगा।
वर्ष 2004 में संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन (यूपीए) के राष्ट्रीय न्यूनतम साझा कार्यक्रम में यह वचन दिया गया कि लोकपाल विधेयक को लागू किया जाएगा। द्वितीय प्रशासनिक आयोग 2005 द्वारा भी यह सुझाव दिया गया कि लोकमाल के सब को बिना किसी विलंब के स्थापित किया जाए। जनवरी 2011 UPA सरकार ने प्रणव मुखर्जी की अध्यक्षता में मंत्रियों के एक समूह का गठन किया जिसे भ्रष्टाचार से निपटने के साथ विधेयक के प्रस्ताव के परीक्षण पर भी अपने सुझाव देते थे। वर्ष 1968 से 2011 तक प्रस्तावित समस्त विधेयकों में सरकार द्वारा मंत्री को भी कानून की परिधि में लाए जाने परंतु न्यायपालिका को इसमें बाहर रखने पर सहमति प्रदान की गई थी। अंततः वर्ष 2013 दिसंबर माह में वह शुभ घड़ी आई, जब लोकपाल विधेयक नारे बाधाएं पार कर गया और जनवरी 2014 से अयन के रूप में
अधिनियम लागू भी हो गया।
‘लोकपाल एवं लोकायुक्त अधिनियम, 2013’ के मुख्य प्रावधान इस प्रकार हैं—
केंद्र में ‘लोकपाल’ और राज्यों के स्तर पर ‘लोकायुक्त होंगे।
‘लोकपाल’ में एक अध्यक्ष और अधिकतम 3 सदस्य होंगे. जिनमें से 50 प्रतिशत न्यायिक सदस्य होंगे। साथ ही लोक के 50 प्रतिशत सदस्य अनुसूचित जाति / अनुसूचित जनजाति / अन्य पिछड़ा वर्ग, अल्पसंख्यकों तथा महिलाओं में से होने चाहिए।
‘लोकपाल’ के अध्यक्ष और सदस्यों का चयन एक चयन समिति द्वारा किया जाएगा। इस चयन समिति में प्रधानमंत्री, लोकसभा अध्यक्ष, लोकसभा में विपक्ष के नेता, भारत के मुख्य न्यायाधीश (या उनके द्वारा नामित सर्वोच्च न्यायालय का एक वर्तमान न्यायाधीश) तथा इन चार सदस्यों की संस्तुतियों के आधार पर राष्ट्रपति द्वारा नामित प्रख्यात विधिवेत्ता सदस्य होंगे।
इस अधिनियम में सांसदों / विधायकों, भ्रष्टाचार के दोषी व्यक्तियों तथा 45 वर्ष से कम आयु के व्यक्तियों को लोकपाल में न रखने का प्रावधान है। सार्वजनिक मामलों, शिक्षा, वित्त आदि क्षेत्रों में कम से कम 25 वर्ष के अनुभव को इसके लिए आवश्यक बनाया गया है।
पदमुक्ति के बाद लोकपाल के अध्यक्ष और सदस्यों की पुनर्नियुक्ति नहीं हो सकेगी, इन्हें कोई कूटनीतिक जिम्मेदारी या संघीय क्षेत्र के प्रशासक के रूप में नियुक्ति नहीं दी जा सकती तथा पद छोड़ने के 5 वर्ष बाद तक ये कोई भी चुनाव नहीं लड़ सकेंगे।
जहां तक लोकपाल के क्षेत्राधिकार का प्रश्न है, प्रधानमंत्री को भी लोकपाल के दायरे में लाया गया है। साथ ही सभी श्रेणियों के सरकारी कर्मचारी लोकपाल के अधिकार क्षेत्र में आएंगे। इसके अतिरिक्त विदेशी योगदान नियमन अधिनियम (FCRA) के तहत प्रति वर्ष 10 लाख रु. से अधिक विदेशी स्रोत से अनुदान प्राप्त करने वाले सभी संगठन लोकपाल के तहत आएंगे।
सीबीआई सहित किसी भी जांच एजेंसी को लोकपाल द्वारा भेजे गए मामलों की निगरानी करने तथा निर्देश देने का लोकपाल को अधिकार होगा।
प्रधानमंत्री की अध्यक्षता में एक उच्चाधिकार प्राप्त समिति सीबीआई के निदेशक के चयन की सिफारिश करेगी ।
अभियोजन निदेशक (Director of Prosecution) की अध्यक्षता में अभियोजन निदेशालय होगा, जो पूरी तरह से निदेशक के अधीन होगा।
सीबीआई के अभियोजन निदेशक की नियुक्ति केंद्रीय सतर्कता आयोग (CVC) की सिफारिश पर की जाएगी।
लोकपाल द्वारा सीबीआई को सौंपे गए मामलों की जांच कर रहे अधिकारियों का तबादला लोकपाल की स्वीकृति से ही हो सकेगा।
इस अधिनियम में भ्रष्टाचार के जरिये अर्जित संपत्ति की कुर्की करने और उसे जब्त करने के प्रावधान शामिल किए गए हैं, चाहे अभियोजन की प्रक्रिया अभी चल ही रही हो ।
अधिनियम में प्रारंभिक पूछताछ, जांच और मुकदमे के लिए स्पष्ट समय-सीमा निर्धारित की गई है तथा इसके लिए विशेष न्यायालयों के गठन का भी प्रावधान है।
इस अधिनियम के लागू होने के 365 दिन के भीतर राज्य विधानसभाओं द्वारा कानून बनाकर लोकायुक्त की नियुक्ति की जानी अनिवार्य होगी ।
भ्रष्टाचार एवं कुशासन की समस्या से जूझ रहे इस देश के लिए ‘लोकपाल एवं लोकायुक्त अधिनियम, 2013’ एक ताजा हवा के झांकि-सा है। यहां यह रेखांकित करना आवश्यक है कि इस कानून को मूर्तरूप प्रदान करने के लिए समाज सेवी एवं गांधीवादी विचारक अन्ना हजारे ने लंबी लड़ाई लड़ी, जिसमें नागरिक समाज ने भी भरपूर योगदान दिया ।
उम्मीद की जा सकती है कि अपने उद्देश्यों के अनुरूप ‘लोकपाल एवं लोकायुक्त अधिनियम, 2013’ सुशासन को प्रोत्साहित करने, भ्रष्टाचार से लड़ने तथा नागरिकों के वैधानिक अधिकारों को संरक्षण प्रदान करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाएगा। इस कानून के प्रभावी होने से जहां भ्रष्टाचार मुक्त भारत का स्वप्न साकार होगा, वहीं शासन-प्रशासन में पारदर्शिता एवं जवाबदेही बढ़ेगी।
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