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किसी भी लोकतांत्रिक एवं जनवादी देश में ‘ लैंगिक समानता’ से उस देश की सामाजिक प्रगति की झलक देखने को मिलती है। यह एक ऐतिहासिक तथ्य है कि महिलाओं को सदियों से दोयम दर्जे का समझा गया। कई प्रकार के धार्मिक बंधनों से बांधकर उनकी गति को मंद कर दिया गया। आपको यह जानकर आश्चर्य होगा कि स्वयं को विकसित एवं आधुनिकतावाद से ओतप्रोत बताने वाले यूरोप मे महिलाओं को राजनीतिक बराबरी 20वीं सदी की शुरूआत में मिली । हालांकि दुनिया भर में अभी भी लैंगिक विषमता देखने को मिलती है। भारत के संदर्भ में बात करें तो भारत का संविधान विश्व का पहला ऐसा संविधान है जिसके द्वारा महिलाओं को राजनीतिक बराबरी का दर्जा दिया गया । यद्यपि भारतीय महिलाओं को राजनीतिक बराबरी तो प्राप्त हो गई परंतु सामाजिक कुरीतियों के कारण वो आज भी गैरबराबरी का दंश झेल रही हैं। इन कुरीतियों में से एक कुरीति है- ” तीन तलाक” । निकाह की पवित्र रस्म के बाद किसी मुस्लिम महिला के मन में जो सबसे बड़ा खौफ होता था वह होता था तीन तलाक
का।
किसी भी लोकतांत्रिक एवं जनवादी देश में ‘लैंगिक समानता’ से उस देश की सामाजिक प्रगति की झलक देखने को मिलती है। यह एक ऐतिहासिक तथ्य है कि महिलाओं को सदियों से दोयम दर्जे का
समझा गया।
एक संवैधानिक भारत यह कुप्रथा लंबे समय से ढो रहा था । 22 अगस्त, 2017 को भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने ‘तीन तलाक’ को असंवैधानिक घोषित कर दिया।
उल्लेखनीय है कि तीन तलाक पाकिस्तान में 1956 से ही प्रतिबंधित है। इसके अतिरिक्त सूडान, साइप्रस, जार्डन, अल्जीरिया, ईरान, ब्रुनेई, मोरक्को, कतर एवं यूएई जैसे इस्लामिक देशों में भी तीन तलाक प्रतिबंधित है। यह प्रथा 1400 वर्ष पुरानी है तथा ‘तलाक-ए-विद्यत’ पर आधारित है।
हालांकि ऐसा बिल्कुल नहीं है कि पूर्ववर्ती सरकारों के पास इस दिशा में प्रयास करने के अवसर नहीं आये। भारत के संसदीय इतिहास में 30 जुलाई, 2019 की तारीख एक अहम पड़ाव के रूप में दर्ज हुई। उच्च सदन में ऐतिहासिक तीन तलाक बिल पारित होन बाद मुस्लिम महिलाओं के न्याय और सम्मान की दिशा में एक ऐसी सफलता हासिल हुई जिसकी प्रतीक्षा दशकों से थी। चरमपंथी ताकनां के लाख विरोध के बावजूद सरकार इस विधेयक को पारित कराने में सफल रही। राष्ट्रपति की मंजूरी मिलने के बाद यह कानून प्रभाव में आ गया है। यह तीन तलाक जैसी कुप्रथा का दंश झेल रही महिलाओं को संरक्षण प्रदान करेगा। इस बिल को महिलाओं के सम्मान, स्वाभिमान और गरिमायुक्त जीवन के प्रति एनडीए सरकार की प्रतिबद्धता और निरंतर प्रयासों की जीत के रूप में देखा जाना चाहिए। गौरतलब है कि जब जन सरोकार से जुड़े विषय पर कोई सरकार मजबूती स कदम उठाती है तो एक बड़े वर्ग का समर्थन स्वाभाविक होता है।
तीन दशक पूर्व एक अवसर तब आया था जब शाहबानों मामले में 400 से अधिक सांसदों वाली कांग्रेस मुस्लिम महिलाओं को इस दंश से मुक्त करा सकती थी । 1985 में सुप्रीम कोर्ट ने तीन तलाक पीड़ित शाहबानों के पक्ष में फैसला देते हुए उसे 500 रुपये प्रति माह के गुजारा भत्ते का प्रावधान रखते हुए कहा था कि यह फैसला शरीयत के अनुसार है, पर मुस्लिम फर्सनल लॉ बोर्ड, मौलवियों और वोट बैंक की राजनीति के दबाव में तब के प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने अदालत के आदेश के विपरीत फैसला लिया। तब कांग्रेस के मंत्री आरिफ मोहम्मद खान, जो कोर्ट के आदेश को तर्कसंगत मानते थे, ने विरोध में इस्तीफा दे दिया। सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीश वीआर कृष्णा अय्यर ने पत्र लिखकर राजीव गांधी के फैसले को कुरान के खिलाफ बताया, किंतु वर्षों तक यह मुद्दा ठंडे बस्ते में रहा। एनडीए सरकार आने के बाद इस विषय को जब दोबारा लाया गया तब थी कांग्रेस के रुख में कोई बदलाव देखने को नहीं मिला।
यदि तीन तलाक ईरान, इराक सीरिया और पाकिस्तान जैसे 19 इस्लामिक देशों में अमान्य है तो इसका यही कारण है कि वर्तमान समाज की आवश्यकताओं के बीच दकियानूसी परंपराओं को लेकर हम नहीं चल सकते। भारत जैसे दुनिया के सबसे बड़े लोकतांत्रिक देश में महिलाओं के अधिकारों एवं गरिमा का हनन करने वाली इस कुप्रथा का बने रहना शर्मनाक था।
एक बड़ा वर्ग इस कदम को राजनीतिक दृष्टिकोण से उठाया गया कदम मान रहा है। हालांकि तीन तलाक संबंधी कानून पर प्रश्न उठाने वाले भूल जाते हैं कि अगस्त 2017 में कोर्ट द्वारा उस पर पाबंदी लगाने के बाद भी ढाई सौ से अधिक मामले सामने आए। इससे साफ हो गया कि बिना कानून लाए इस कुरीति से मुस्लिम महिलाओं के हितों की रक्षा नहीं हो सकती। तीन तलाक को लेकर जिन महिलाओं ने लंबी लड़ाई लड़ी वे आम महिलाएं थीं। इस कुप्रथा से त्रस्त महिलाओं ने आवाज उठाने की हिम्मत दिखाई और सुप्रीम कोर्ट में उन्हें जीत भी हासिल हुई।
राजनितिक दलों का यह दायित्व होता है कि वे जनसामान्य की आवाज को उचित स्वरूप देकर आगे बढ़ें। संसद का भी यह काम होता है कि वे जनसामान्य की आवाज को उचित स्वरूप देकर आगे बढ़े और समय और आवश्यकताओं के अनुरूप नीतियों व नियमों का निर्माण करें।
तीन तलाक को लेकर हुआ यह परिवर्तन हो या पूर्व में अन्य मामलों में न्यायालय के निर्णय से हुआ परिवर्तन हो, इस तरह के परिवर्तन को हमें समझना, स्वीकारना और संभालना होगा। इस संदर्भ में भारतीय संसद एक बेहतर उदाहरण है।
यदि तीन तलाक ईरान, इराक सीरिया और पाकिस्तान जैसे 19 इस्लामिक देशों में अमान्य है तो इसका यही कारण है कि वर्तमान समाज की आवश्यकताओं के बीच दकियानूसी परंपराओं को लेकर हम नहीं चल सकते। भारत जैसे दुनिया के सबसे बड़े लोकतांत्रिक देश में महिलाओं के अधिकारों एवं गरिमा का हनन करने वाली इस कुप्रथा का बने रहना शर्मनाक था। भले ही आज हम मुस्लिम समाज के बीच व्याप्त इस कुरीति के खिलाफ कानून बनाने के लिए खड़े हुए हों, लेकिन इससे पूर्व अन्य धर्मों में भी सुधार किए गए, वह चाहे बाल विवाह का अधिनियम हो, हिन्दू विवाह अधिनियम हो, दहेज प्रथा के विरुद्ध कानून हो अथवा ईसाई अधिनियम हो । इस तरह के कानूनी परिवर्तन और सुधार सब धर्मों में किए जाते रहे हैं। यह अलग बात है कि सुविधा की बहस और तुष्टीकरण की राजनीति करने की राजनीति ने इस दिशा में कोई खास पहल नहीं की। तीन तलाक संबंधी कानून में दंडात्मक प्रावधान को लेकर सवाल उठाना ठीक नहीं है । यह पहली बार नहीं कि किसी सिविल मामले में कानून बना कर उसमें
दंड का प्रावधान किया गया हो । अन्य सिविल मामलों में भी दंड
का प्रावधान है। उदाहरण के तौर पर दहेज लेने पर कम से कम पांच वर्ष. दहेज मांगने पर छह महीने का कारावास, शादीशुदा रहते हुए दोबारा विवाह करने पर सात वर्ष की सजा और बाल विवाह करने पर सात वर्ष की सजा का प्रावधान है। ये सभी कानून हिंदू समाज के लिए कांग्रेस सरकारों के कार्यकाल में बने स्पष्ट है कि तीन तलाक संबंधी कानून में सजा का प्रावधान होना कोई नई बात नहीं है। महिला अधिकारों और जीवन जीने की गरिमा का हनन करने वाले व्यक्ति में दंड का भय होना ही चाहिए ।
तीन तलाक को लेकर हुआ यह परिवर्तन हो या पूर्व में अन्य मामलों में न्यायालय के निर्णय से हुआ परिवर्तन हो, इस तरह के परिवर्तन को हमें समझना, स्वीकारना और संभालना होगा। इस संदर्भ में भारतीय संसद एक बेहतर उदाहरण है । हमारी सामूहिक सोच और चिंतन का नाम ही संसद है, जहां एक ही मुद्दे पर विविध विचारों से गुजरते हुए आम सहमति बनाने का प्रयास किया जाता है। तीन तलाक संबंधी कानून मुस्लिम महिलाओं के हितों और अधिकारों की दिशा में एक क्रांतिकारी कदम सिद्ध होगा। अब उनके लिए एक नए युग का आरंभ होगा और तुष्टीकरण और वोट बैंक की राजनीति के अंत की शुरुआत होगी ।.
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